कभी बातों के चाहत पर शक कर यह भी सोचा होता।
तुम्हारे साथ बातें क्यों करते जब मुझे अच्छा नहीं लगता।
एक ही बात ओंठ बार बार दोहरायें ये अच्छा नहीं लगता।
हँसी भाई थी कभी किसी रोज मुझे एक दिन मगर उन ओठों पर अब खामोशी का आलम अच्छा नहीं लगता।
तुम्हारे सफलता की जरूरत मुझको समझौते पर मजबूर करती हैं।
मगर मजबूर हो प्यार के हाथों और बार बार मुझे झुकना अबअच्छा नहीं लगता।
मुझे इतना सताया इन रिश्तों ने कि अब खामोश रहना अच्छा लगता है पर एकतरफा बातें करना मुझे अच्छा नहीं लगता।
मेरे अपनों में जो शामिल न हुए तो बता देना।
मेरी लेखनी किसी गैर की बातों को शब्दों में पिरोती हुए यादों में खो जाए मुझे ये अब अच्छा नहीं लगता।
जो सच था वही शब्दो से ब्यां किया होता
मुझे झूठी तारीफ और फार्मेंल्टी में तुम्हारे लाइक और कमेंट अब अच्छा नहीं लगता।
रजनी अजीत सिंह 25.5.18
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