महीना: जनवरी 2017

        ~ शोभा (7.9.97)

दिनमान की शोभा काम में है, 

                                 निद्रा की शोभा रात में है। 

सत्य की शोभा हार के फिर जीत में है। 

                              असत्य की शोभा जीत कर 

                                हार जाने में है। 

नारी की शोभा त्याग में है, 

                            नर की शोभा सच प्यार में है। 

त्याग और बलिदान बिन नारी शोभा पाती नहीं। 

         सत्य और प्यार बिन नर भी बस पाते नहीं। 

घर उजड़ जाता है नारी  मारी जाती है। 

               घर एक बार उजड़ जाने पर बस पाते नहीं। 

मृत्यु का वरण जीवन का शरण पाता नहीं। 

         असत्य का अंधकार छा जाने पर 

           सत्य का प्रकाश आता नहीं। 

जो चला जाता है कभी लौट कर आता नहीं। 

      विता हुआ रात – दिन कभी  वापस आता नहीं। 

जो एक बार भटक जाता है 

                               वह राह पर आता नहीं। 

लेकिन साधना प्रयत्न से 

                      सब कुछ पाया जा सकता है। 

कहने  वालो  का यह कथन असत्य नहीं। 

                   रजनी सिंह 

          ~ अंधकार (26.8.97)

छाया  है अंधकार वो अंधकार तो छट जाता। 
पड़ा है आँखों पर पर्दा वो पर्दा तो हट जाता। 

समाज के राहों में कांटे ही कांटे है, फूल तो विछ जाता। 

किसे फूल कहूं किसे कांटे ये समझ नहीं आता। 

कांटो में ही फूल भी खिला करते हैं। 

लेकिन हम उन कांटो की बात करते हैं, 

जो कंटिली झाड़ियां है जिसमें फूल नहीं खिला करते। 

इन कंटिली झाड़ियों का भी अपना अस्तित्व है। 

लेकिन इसकी छटा वनो में है, ये उपवनों में शोभा नहीं पाया करते। 

लेकिन आज के दौर में कांटे ही सजाए जाते हैं, 

गमलों में सजाए जाते हैं, उपवन में लगाए जाते हैं। 
कांटो के साथ  फूल खिलाना थोड़ा मुश्किल है। 

इसीलिए अलग से कांटे लगाए जाते हैं। 

अलग से फूल भी खिलाए जाते हैं। 

लेकिन कांटो में रहने वाले फूल अब थोड़ा कम ही खिला करते हैं। 

~जिंदगी के आखिरी क्षण(27.1.17) 

जिंदगी के आखिरी क्षणों में दुनिया के लिए कुछ सन्देश है। 

जिंदगी जीना है तो अपने लिए जियो। 

जिंदगी में कुछ करना है तो अपने स्वास्थ्य के लिए करो। 

क्यों कि स्वास्थ्य नहीं तो कुछ भी नहीं। 

मतलब की इस दुनिया में जब शरीर लाचार होता है तो कोई भी साथ नहीं। 

बेटे – बेटी  तब तक  साथ हैं जब तक शरीर में कुछ करने की ताकत  है। 

परिवार तब तक साथ है जब तक सेवा करने की ताकत है। 

जिस दिन स्वास्थ्य सही नहीं रहता सब रिस्ता दामन छुड़ा लेता है। 

उम्र कोई भी हो स्वस्थ शरीर ने दामन छोड़ा नहीं। 

की अपनो की क्या बात करूं। 

मौत भी नहीं पूछती मारने के लिए। 

और अंतिम क्षणों में रह जाता है तो। 

बस मृत सैया पर पड़े मौत  का इंतजार। 

क्यों कि सब इंतजार खत्म हो जाता है। 

साथ देगा तो बस मृत्यु सैया। 

किसी के   गले की हार बनने से अच्छा मौत गले की हार बने।

                रजनी सिंह 

~आँखों में डर कैसा? 

तुम्हारे आँखों में डर कैसा? 

जिंदगी तो जीते हो, पर जीने का हुनर कैसा? 

होठों पर जब सच्चाई  होती है, 

तो इस पर खुशी की मुस्कुराहट होती है। 
फिर तुम्हारे आँखों में डर कैसा? 

जब चेहरे पर चिंता होती है, 

तो माथे पर बल कैसा? 

क्या तुम अपने माथे के बल का राज बताओगे?

प्यार जब होता है तकदीर  से होता है। 

तकदीर न अमीर होता है न गरीब होता है। 

फिर तुम्हारे आँखों में डर कैसा? 

प्यार एक एहसास है इसे लफ्जों से बंया नहीं करते। 

ये तुम्हारा दिल नहीं है, जो जब चाहे लगा लिया। 
और जब चाहे भुला दिया। 

ये प्यार है तुम्हारा दिल नहीं। 

प्यार जब हो ही गया तब पर्दा  कैसा? 

फिर तुम्हारे आँखों में डर कैसा? 

                 रजनी सिंह 

~”कलयुग” का प्रस्थान  “धर्मयुग” का आगमन 

(23.8.97)

कलयुग में अंधकार था, तो सत्य के प्रकाश से “धर्मयुग” को भी आ जाना है। 
क्यों कि एक को आना है तो दूसरे को जाना है। 

ये प्रकृति का नियम है, टाले कभी प्रयत्न से भी टल सकता नहीं। व
सत्ययुग तो आ सकता नहीं, कलयुग भी अब टीक सकता नहीं। 

धर्म करने से “धर्मयुग” को आने से कोई रोक सकता नहीं। 

इंसान तो बिक सकता है, लेकिन भगवान् तो बिक सकता नहीं। 

ताकत तो बिक सकता है, लेकिन शक्तियाँ बिक सकती नहीं। 

औरत सतायी जा सकती है, नारी की श्रध्दा और त्याग मिट सकता नहीं। 

हंसी – खुशी भी  खरीदा जा सकता है, लेकिन सकूं चैन खरीदा जा सकता  नहीं। 

बेटी-बेटा, रिश्ते – नाते सब खरीदे जा सकते हैं। 

लेकिन स्नेह प्यार खरीदा जा सकता नहीं। 

पैसे से कुछ सामान कुछ बातें खरीदें जा सकते हैं।

लकीन जज्बात और विचार खरीदा जा सकता नहीं। 

थोड़ी सी रौशनी तो खरीदी जा सकती है। 

लकीन दिन का प्रकाश खरीदा जा सकता नहीं। 
अंधकार भी खरीदा जा  सकता है, लेकिन  “रात” खरीदी  जा सकती नहीं। 

अन्त में रजनी कहती है , कुछ चीज खरीदा जा सकता है। 

लकीन दौलत से हर चीज खरीदा जा सकता नहीं। 

कुछ देर स्थायित्व तो खरीदा जा सकता है। 

लेकिन अमरत्व खरीदा जा सकता नहीं। 

 “धर्मयुग ” में सब कुछ ईश्वर से पाया जा  सकता है। 

लकीन दौलत से  सब कुछ खरीदा जा सकता नहीं। 

                       रजनी सिंह 

~सत्य का प्रकाश (23.8.97)

सत्य का प्रकाश सीखलाता है, रात में अंधकार है  तो दिन में उजाला भी  था। 
कलयुग में अंधकार है तो सत्ययुग में प्रकाश भी  था। 

बहू को सताया  जाता है तो बेटी शब्द से प्यार भी था। 

एक ओर स्वार्थी इंसान है तो दूसरी ओर त्यागी भगवान् भी था। 

एक ओर ना इंसाफी है दूसरी ओर  इंसाफ भी था।

हर जगह बैमानी है तो छिपा हुआ ईमान  भी था। 

असत्य से दौलत का ताकत है तो सत्य  में छुपा शक्ति भी था। 

इसीलिए  अब कहती हूँ मौसम  बदलते रहते हैं। 
जो “था “उसका विपरीत” है “लेकिन मौसम की तरह ” था   “को भी “है” में बदल जाना है। 


~” दिल की आवाज” (23.8.97)

आज  के दौर में छाया अन्धकार है। 
दिनकर  के रहते हुए भी, दिन में अंधकार है। 

प्रकाश की एक  किरण तो है, लेकिन कलयुग के घोर अंधकार में छिप सा गया है, स्वार्थ इच्छा में सूरज। 

सब स्वार्थ समर में भाग रहे बेटा बेटी रिश्ते नाते, अब नाम के ही सब रहे। 

आज का मानव ये सोचे। 

दौलत रहे तो हर चीज खरीदी जा सकती है। 
पैसे से ही न्याय खरीदा जाता है, इंसाफ ईमान भी खरीदा जाता है। 

बेटा खरीदा जाता  है , तो बेटी सताई जाती है। 

कहीं नारी खरीदी जाती है तो पत्नी सताई जाती है। 

प्यार स्नेह खरीदा जाता है, तो जज्बात और विचार सताया जाता है। 

मुस्कान की  खरीद में खुशी सताई जाती है। 

आज का मानव ये सोचे, सच पैसा ही सब कुछ होता। 

अर्जित कर लो मन भरकर के शायद ये अवसर हाथ लगे न लगे। 

स्वार्थ  समर में बेटा – बेटी विकती है तो विक जाने दो। 

प्यार स्नेह लूटता है तो लूट जाने दो। 

रिश्ते – नाते विकते हैं तो विक जाने दो। 

हंसी-खुशी लुटती है तो लूट जाने दो। 

लेकिन मुझे  मेरी दौलत की खुशी, पैसे का नशा बस पूरी तो हो जाने दो। 

                                  रजनी सिंह 

~”सपना”(3.10.97)

 सपना कभी अपना   नहीं होता। 

ये  सपना तो सपना है, लेकिन यहाँ अपना भी, 

अपना नहीं होता।

जागते लोग भी देख लेते हैं सपना। 

नींद में देखने की बात ही निराली है। 

बेगानो की बात करें तो  कोई बेगाना होकर भी अपना लगता है। 

कोई अपना  होकर भी  बेगाना लगता है। 

कोई बेवफा होकर भी वफा की तलाश  करता है। 

कोई वफा करके भी बेवफा बन जाता है। 

ये जिंदगी है, इसके रंग  भी अजूबे है। 

सपना कभी किसी के  जिंदगी में खुशी की दस्तक देती है, 

तो वो सब कुछ गंवाकर मरना चाहता है। 

सपने में कभी किसी को मौत ने लाखो बार मारना चाहा है। 

तो भी वह सब कुछ भुलाकर, खुशी बांटकर जीना  चाहता है। 

सपना- सपना कैसा – कैसा सपना ?

 सपना कैसा दिखता है? इसका वर्णन करना ही  मुश्किल लगता है। 

                           रजनी सिंह 

~ जिंदगी की आशा क्या? (2.10.97)

जिंदगी की आशा क्या होती है। इस कविता में मेरा विचार स्पष्ट है –

आशा की किरण पराये कोअपना समझना।
अन्धेरा रिस्ते और खूनी नाते की बुनियाद।

जीवन की आशा अपूर्ण लगने लगती क्यों?

क्योंकि स्वार्थ भावना निजी रिश्ते में निहित है।

जीवन की लालसा अधूरी क्यों?

क्यों कि लालसा है संघर्ष नहीं।

प्यार पाने की आशा में सब खो जाता क्यों?

क्योंकि प्यार शब्द का लगाया ही गया गलत अर्थ।

प्यार शब्द ने अपना नाता हर नाते से जोड़ा है।

मां की ममता से जोड़ा है, पिता पालक से जोड़ा है।

भाई-बहन से जोड़ा है, बेटी – बेटा से जोड़ा है।
लकीन इसका गलत अर्थ कब लगा?

जब लोगों ने प्रियतम-प्रेययसी तक सीमित कर छोड़ा है।
अब प्यार शब्द कहने में दिल डरताहै क्योंकि इसकाअर्थ एक ही में सीमट कर रह गया है।

रजनी सिंह

~गीता का ज्ञान पर कविता(9.9.16)

‘गीता’ का ज्ञान अधूरा है ’ 

भक्त का भक्ति अधूरा है।

जहाँ श्रद्धा भाव न हो, 

सब उल्टा हो जाता है।  

गीता की कसमें खाकर भी, 

सच्चा गवाह नहीं  मिलता।

न्यायालय में न्याय नहीं होता, 

माँ बहन सभी की होती है। 

दूजे की माँ की ममता की कद्र नहीं होती। 

जिस आँचल में दूध छिपा, 

उस दूध की कीमत क्या होगी।

झूठ ही राज का सत्ता हैं, 

तो सच की कीमत क्या होगी।

जब बहन-बेटी बीक जाती हैं,

 तो औरत की कीमत क्या होगी।

जो प्रकृति का पूजक न हो, 

वो भगवान का पूजक क्या होगा। 

जिस प्रकृति ने जन्म दिया, 

उस प्रकृति की कीमत क्या होगी। 

जब नेचर ही बदल जाये, 

तो नेचर की कीमत क्या होगी। 
जहाँ अनर्थ-अनर्थ ही हो, 

वहाँ अर्थ की कीमत क्या होगी।

जहाँ नफरत से भरा जहाँ, 

वहाँ प्रेम की कीमत क्या होगी। 

जहाँ हर जगह बेवफाई हैं,

 वफा की कीमत क्या जाने। 

जिसने खुद को अपर्ण न किया, 

समर्पण  की कीमत क्या जाने। 

जो भर न सका मन भावों से,

भगवान की कीमत क्या जाने। 

जहाँ धर्म और कर्म न हो,

वे धर्म-कर्म की कीमत क्या जाने। 

जहाँ झूठ की कीमत हो, 

वो सच की कीमत क्या जाने।

सच पर ही है धरा टीकी, 

धरती की कीमत कर लो तुम। 

जो दिन की कीमत कर न सका, 

ओ रजनी की कीमत क्या जाने।

 रजनी सिंह