जो शब्द अधर न कह सके वो दर्द बन के रह गये।
जो दर्द बन के रह गये वो प्यार ही में खो गये।
अब जिदंगी में गम नहीं मेरी हर सांस तेरे प्यार में ही मिल गये।
जो चुप रहें या कुछ कहें ये सोच, बस अरमान बन के रह गये।
जो चुप रहें तो है वफा जो कह दिये तो बेवफा, बेवफा – वफा के खेल में सब बस सीमट के रह गये।
ये प्यार भी क्या चीज है एहसास बन कर रह गये।
न तुम कहो न हम कहें, जो हल कभी न सवाल हो, वो गलत सवाल बन के रह गये।
जो शब्द अधर न कह सके वो दर्द बन के रह गये।
जो दर्द बन के रह गये वो प्यार ही में खो गये।
रजनी अजीत सिंह 18.4.2019
महीना: अप्रैल 2019
श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ दोहा, चौपाई, छन्द और सोरठा में।भाग 1
ये जो देवी कवच है जो श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के पहले किया जाता है। अब ये मात्र संस्कृत या हिन्दी अनुवाद में ही पढने को मिलता है जबकि मेरे माँ के पास जो दुर्गासप्तशती की किताब थी वो दोहा, सोरठा, छंद, चौपाई में थी जिसको पढ़ना रोचक था और सबसे बड़ी बात इसे गा के भी पढ़ा जा सकता था। मैंने बहुत ढूंढने की कोशिश की पर अब ये बुक मुझे मार्केट में कहीं नहीं मिला। प्रतिदिन पाठ करने से बहुत दोहे चौपाई याद हो गए थे और कुछ डायरी पर लिखा था जिसे मैं लिख कर शेयर करती हूं। कुछ त्रुटि हो तो क्षमा चाहूंगी। अफसोस इस बात का है कि इस बुक के राइटर का नाम भी नहीं है।
*श्री दुर्गायण*
आवाहन
छंद – जाग महावरदायिनि! वर दे, ह्रदय भक्ति से भर दे,
विमल बुद्धि दे अटल शक्ति दे, भय बाधा सब दर दे।
पथ प्रशस्त कर कहीं न अटकूँ, शिवा अमंगल हरनी,
भाषा बद्ध करू तब गाथा, नित नव मंगल करनी।।
दोहा- गणपति गौरि गिरिश पद, वन्दि दुहूँ कर जोर।
जगदम्बा यश गाईहौं, करहु सहाय अथोर।।
देवी कवच
चौपाई – नमोनमो चंडिका भवानी। सुमितरत जाहि होय दुख हानी।।
मार्कण्डेय महामुनि ज्ञानी। ब्रह्मा सन बोले मृदु बानी।।
पूज्य पितामह कहहु बुझाई। वह साधन जेहि मनुज भलाई।।
या जग में जो गोपनीय अति। काहू पै प्रकटेहु न सम्प्रति।।
तब ब्रह्मा जी अति हरखाई। ज्ञानी मुनि सन कहेहु बुझाई।।
ब्रह्मन! वह साधन तो एकू। मोसन सुनहु सुचित सविवेकू।।
‘देवी कवच’ नाम मन भावन। जो अति गोपनीय अति पावन।।
प्राणिमात्र का जो उपकारी। रक्षक निर्भयकारक भारी।।
दो.- देवी की’ नौ मूर्तियां’, ‘नौ दुर्गा प्रख्यात।
अलग अलग जेहि नाम है, सुमिरत सुख सरसात।।
चौ. – प्रथम’ शैलपुत्री ‘ शुभ नामा।
जेहि जपि जीव पाव विश्रामा।। ब्रह्मचारिणी दूसर नामा।
जो शुभ फलद सहज सुखधामा।।
तीसर चन्द्रघंण्टा वर।
जाते लहहिं सौख्य सुर – मुनि नर।।
कुष्मांडा चतुर्थ शुभ नामा।
जाते पाव जीव गुण – ग़ामा।।
‘ स्कन्दमातु ‘पंचम जग जाना।
नाम करइ अघ-ओघ निदाना।।
‘ कात्यायिनी ‘नाम शुभ छठवाँ।
रहै न टिकै त्रास-भय तहवाँ।।
‘ कालरात्रि ‘सप्तम जे भजहीं।
तिन सुख अमित लाभ नित लहहीं।।
मातु-कृपा भय पास न जाहीं।
नाम जपे दुख सपनेहु नाहीं।।
दो.- विदित ‘महागौरी’ जगत, अष्ट नाम सु-सेत।
नवम’ सिद्धिदात्री ‘ विमल, नाम मोक्ष फल देत।।
सोरठा – सभी नाम प्रतिपाद्य, विज्ञ वेद भगवान् से।
नाम प्रभाव अकाट्य, जीव त्राण पावहिं जपे।
चौ. – पड़ा अनल में जलता जो नर। घिरा हुआ हो रण में पड़कर।।
संकठ विषम परा जो होई। होई भयातुर धीरज खोई।।
माता शरण गहै जो जाई। तासु अंमगल सकल नसाई।।
युद्ध समय संकठ यदि आवै। नहिं विपत्ति ता कह डरपावै।।
शोक दुःख – भय न व्यापै। मातु भगवती कहँ जो जापै।।
श्रद्धा – भक्ति सहित मन माँही। जपै अवशि ताकह छन माहीं ।
बढ़ती होय अमंगल नासै। जड़ता जाइ सुबुद्धि प्रकासै।।
देवेशवारि! जो चिन्तइ तोहीं निस्संदेह सुरक्षहु ओहीं।।
आगे का भाग दूसरे अंक में।
You must be logged in to post a comment.