अश्रु से नहीं मेरी पहचान थी कुछ
दर्द से परिचय तुम्ही ने तो कराया
छू दिया तुमने ह्रदय की धड़कनों को
गीत का अंकुर तुम्ही ने तो उगाया
मूक मन को स्वर दिए हैं बस तुम्ही ने
उम्र भर एहसान भूलूगीं नहीं मैं
मैं न पाती सीख यह भाषा नयन की
तुम न मिलते उम्र मेरी व्यर्थ होती
सांस ढ़ोती शव विवश अपना स्वयं ही
और मेरी जिंदगी किस अर्थ होती
प्राण को विश्वास सौंपा बस तुम्ही ने
उम्र भर एहसान भूलूगीं नहीं मैं
तुम मिले हो क्या मुझे साथी सफर में
राह से कुछ मोह जैसा हो गया है
एक सूनापन की जो मन को डसे था
राह में गिरकर कहीं वह खो गया है
शोक को उत्सव किया है बस तुम्ही ने
उम्र भर एहसान भूलूगीं नहीं मैं
यह ह्रदय पाहन बना रहता सदा ही
सच कहूं यदि जिंदगी में तुम न मिलते
यूं न फिर मधुमास मेरा मित्र होता
और अधरो पर न यह फिर फूल खिलते
भग्न मंदिर फिर बनाया बस तुम्ही ने
उम्र भर एहसान भूलूगीं नहीं मैं
तीर्थ सा मन कर दिया है बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूगीं नहीं मैं
शिष्य की बड़ी असमर्थता है धन्यबाद देने में। किन शब्दों में बांधे धन्यबाद? क्यों कि शब्द भी गुरु के ही दिये हुए हैं। मूक ही निवेदन हो सकता है। लेकिन फिर भी कहने का कुछ मन होता है। बिन कुछ कहे भी रहा नहीं जाता।
तो एक ही उपाय है कि गुरु की प्रतिध्वनि गूंजे। जो गुरु ने कहा है, शिष्य उसे अपने प्राणों में गुंजाए। जो गुरु ने बजाया है, शिष्य की प्राण – वीणा पर भी बजे। यही धन्यबाद होगा यही अभार होगा। अर्थात जो सुगंध गुरु से मिली है, वह बांट दी जाय। यही एक उपाय है गुरु से उऋण होने का।
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