जिंदगी की यादें पुराने गीत, गानों, तस्वीरों और कविताओं के साथ कहानी अपने जमाने की भाग – 8और9(3.6.17)

अजीब दास्ताँ है,
पुरानी तश्वीरो की |
इनको देख भी नहीं सकता,
इनको फेंक भी नहीं सकता ||

अजीब किस्से है,
पुरानी यादो के |
जिन्हे सहेज भी नहीं सकता,
और परहेज़ भी नहीं कर सकता ||

अजीब सुरूर है,
पुराने सपनो का |
उनमे रह भी नहीं सकता,
किसी से कह भी नहीं सकता ||

ये कविता रोहित नाग जी के ब्लॉग से लिया गया है। मैं चाहती तो इसके भाव को बदलकर अपने ब्लॉग पर लिख सकती थी लेकिन मैं ये बताना चाहती हूँ कि विचार अलग होते हुए भी इनकी कविता में मेरी कविता से समनता है। भाव अलग होते हुए भी विचार एक है। 

अजीब दास्ताँ कविता का बदला स्वरूप। 



अजीब दास्ताँ है, पुरानी तस्वीरों की। 


इनको देख भी सकती हूँ, सहेज भी सकती हूं। 


पर इनको फेक नहीं सकती। 


अजीब खिस्से हैं, पुरानी यादों के। 


जिन्हे सहेज भी सकती, और परहेज़ भी कर सकती। 


अजीब सुरूर है पुराने सपनो का। 


उनमे रह जी भी सकती, सबसे कह भी सकती।


यदि कोई अपना सा लगे तो सुख-दुख बांट सपने को पूरा भी कर सकती। 



पहले मैंने सोचा था मेरे शीर्षक से मैच कर रहा था तो ये कविता डाल दूं। लेकिन जब लिखने लगी तो एक तो पुलिंग शब्दों को स्त्री लिंग करना था और दूसरी बात विचार तो एक है पर भाव अलग है। 


हर इंसान दो तरह के होते हैं यादों की बात करें तो कोई यादों के सहारे जिंदगी गुजार देता है। कोई यादों से जुड़ी हर चीज मिटाकर भूलना सीखता है। परन्तु यादें तो दोनों ही सूरत में बरकरार है। तो मेरे विचार में यादों को मिटाने से अच्छा है यादों के साथ जीना। तस्वीरों की यादों की बात कर लें तो यदि गुजरें जमाने की तस्वीर है तो उसे देख दुःख होते हुए भी सुखों की अनुभूति होगी क्योंकि यदि कुछ यादें दुःख की होंगी तो सुख के एहसास की भी होंगी। इस लिए यादों के साथ जीना सीखना चाहिए। यदि यादों को भुलाने के लिए याद आने वाले निशानी मिटा दे तो केवल दुःख ही हाथ लगेगा क्योंकि दोनों सूरत में यादें तो आनी ही है इसलिए तो नाम पड़ा है यादें। 


अब मैं नीचे अपनी जिंदगी की  कहानी जब कक्षा  एक में एडमिशन हुआ था तब की रोचक घटना बताऊँगी कि तब में और अब के सोच में कितना फर्क आया है। 


तो मेरे प्यारे मित्रों मैं बता रही हूँ कि मेरा एडमिशन कक्षा एक में हुआ तब की कहानी। आजकल पी. जी., के. जी., सेक्सन में पढ़ाना या एडमिशन कराना बहुत ही फक्र की बात होती है कि मैं तो अपने बच्चों को पी. जी. से ही पढ़ा रही हूँ या पढ़ा रहा हूँ। मेरे समय में जब पिता जी छुट्टी में आये थे तो कक्षा एक के पहले वाले कक्षा में एडमिशन कराना तय हुआ। (जिस कक्षा का नाम गदहो गोल गदहिया गोल कहा जाता था।)  मुझे उस समय फिल हुआ मैं गदहिया गोल में नहीं पढूंगी और मैं जिद्द पकड़ लिया कि इस साल मैं स्कूल में नहीं पढूंगी और अन्ततः पिताजी छुट्टी बिता फिर सर्विस करने चले गए और मैं घर पर ही अपनी बड़ी बहन से मेहनतकर 100तक गिनती, 10 तक पहाड़ा यानि टेबल क से ज्ञ तक अर्थात् स्वर और व्यंजन लिखने और पढ़ने सीख लिया। 

तब तक पिता जी दूसरे साल फिर छुट्टी लेकर आये और जितना हो सका मुझसे  पूछकर टेस्ट लिया और मेरा जबाब सुन बहुत खुश भी हुए। दूसरे दिन बड़े फक्र के साथ मुझे साथ लेकर स्कूल  गए और मेरा एडमिशन कक्षा एक में करवाकर लाये। मुझे आज भी वो दिन याद है जैसे मेंरा कक्षा एक में एडमिशन क्या हुआ हो कोई बहुत बड़ी डिग्री मिल गई हो। माँ जाने से पहले दही गुड़ खिलाई तथा आने पर गर्म गर्म हलुआ बनाकर खिलाई। इस समय की तरह मिठाई इतनी आसानी से नहीं मिला करता था कि किसी शुभ काम में मिठाई आ जाय। उस समय मीठा के नाम पर घर में बतासा,पटौरा, मिश्री या लाचीदाना ही गांव में हुआ करता था तो इन समानो से मुंह मीठा कराने से अच्छा हलुआ बनाना ही बेस्ट आप्शन होता था। 

अब एडमिशन मेरा हो गया और मैं मन लगाकर पढ़ाई करने लगी। मैथ मेंरा बहुत ही तेज था मैं हमेशा अपने कक्षा में प्रथम स्थान पर रहती थी। मेरी सहेलियों में सबसे अच्छी सहेली नीरज,  कनक, और नमिता थी। हम लोगों के समय में दो लोगों के बीच कुछ भी एक दूसरे को समान देकर सखी धराया (बनाया) जाता था और सखी धराने (बनाने) के बाद एक दूसरे का नाम लेकर नहीं बुलाते थे आजीवन सखी कहकर ही बुलाते थे। हम चार सहेलियों में भी दो – दो के बीच सखी धराया गया। नीरज और नमिता आपस में सखी बनी। मैं और कनक एक दूसरे की सखी।

(मुझे अपने ब्लॉग की गायत्री जी ने मेरी रचनाओं पर कमेंट स्वरूप पोस्ट किया था मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं इसे अपनी रचना में डाल रही हूँ ताकि ये खूबसूरत लाइन हमेशा हमारी रचना के साथ रहे। 


अब जब गायत्री जी पढेंगी तो जबाब स्वयं मिल जाएगा। मुझे यादों को संजोना अच्छा लगता है इसलिए आपके यादों को संजोकर रख लिया है।) 

उस जमाने में भी में भी मेरे पिताजीलड़को से ज्यादा लड़कियों को मानते थे।पूरे गांव वाले कहते थे कि मदन जी अपने लड़कियों को सर पर च ढ़ाकर रखते हैं। हम लोग छः बहन थे लेकिन हम लोगों को कभी भी एहसास नहीं हुआ की बेटी हैं। हमारे दो भाई थे परंतु उन लोगों से भी  अधिक प्यार दुलार मिलता था। भाई बड़े थे लेकिन दो बड़ी बहनों की शादी अपने सर्विस काल में ही पिता जी ने कर दिया था मेरी बड़ी बहन रेखा  की शादी गांव पलिया जिला गाजीपुर, दिलदार नगर में हुई है। और दूसरी बहन सुधा की शादी भाटपुर रानी गांव पकड़ी बाबू जिला देवरिया में हुई। लेकिन दोनों बहन बनारस में रहती हैं। एक बहन के श्वसुर सेंट्रल जेल में कार्यरत थे और दूसरे के इंकमटैक्स के कमिश्नर थे। मेरी बड़ी बहन की शादी 10जून सन् 1975 में हुई थी और मेरा जन्म 9मार्च 1974 में ही हो गया था मैं अपनी बड़ी बहन की शादी में मात्र पंद्रह या सोलह महीने की थी। मेरी बड़ी बहन को 10साल तक बच्चे नहीं हुए इस लिए बड़े भाई की शादी में गयी तो मुझे बेटी बना बहन-बहनोई बनारस ले आये। इसीलिए कक्षा पांच से मेरी पढाई बनारस से ही हुई है। 

अब बनारस की कहानी सुनाने से पहले मैं अपनी माँ की यादों को बांटूगीं। बचपन से लेकर कक्षा चार तक ही माँ के साथ रह पायी थी लेकिन ये बिताए हुए समय मेरे लिए आज भी अनमोल है जिसे मैं भुला नहीं सकती हूँ। 

शेष कहानी अगले भाग 10में। 

                रजनी सिंह 

28 विचार “जिंदगी की यादें पुराने गीत, गानों, तस्वीरों और कविताओं के साथ कहानी अपने जमाने की भाग – 8और9(3.6.17)&rdquo पर;

    1. धन्यवाद अभय जी। आपको क्या लगा या लगेगा? यह तो बताया नहीं। कहानी आगे बढने दीजिए आपकी अनुमति मिली तो पूर्वाग्रह वाली कविता जरूर डालूगीं।

      Liked by 1 व्यक्ति

टिप्पणियाँ बंद कर दी गयी है।