ओ दिनचर्या मेरी कहाँ गयी जिम्मेदारियां तेरी।
तेरे करोना के दहसत से वो दिनचर्या खो सी गई।
वो भागमभाग की जिंदगी और दहसत में भी धरती को देखने का मजा लुभाती है मुझे।
वो सुबह सुबह उठकर न चाहते हुए भी मशीनी संसाधनों के बीच खो गया था वो खुशनुमा पल।
जो सीने पर कहीं न कहीं छुपकर अंदर ही अंदर कृपाण चलाती थी दिनचर्या के बीच।
अब धरती के गोद में बैठकर ओ सुहानी हवा, पक्षियों का सुबह शाम कलरव अक्सर मेरे हृदय को भा जाती है।
और न चाह कर भी मेरी लेखनी पन्नो पर शब्दों से घसीटती है कुछ बताने के लिए।
विज्ञान के निर्माण ने हौले-हौले करके सैलाब सा ला दिया है जग में।
पर मेरी जिह्वा कोरोना के दहसत में भी उससे गुफ्तगू करते हुए जिंदगी पानी के धारा में मीन की तरह उछाह से भर जाती है।
वो चहचहाती चिड़िया, वो फुदकती गिलहरियों का पेड़ पर बार बार चढ़ना उतरना जैसे बहुत कुछ कह रही हो इकरार में।
मेरी आँखे झुक जाती है कोरोना के दहसत के बाद भी प्रकृति के द्वारा संदेश दे जाना उसका, जो जाने कितनों को खा जाया करता है रोज।
आधुनिकता के धर्म के कोंण में आज तेरी क्रूर मुस्कान का तांडव सहमे सहमें देखती हूँ।
बस सबक सीखने के लिए इतना दिन स्वागत किया तेरा घर में रहकर भारतीय संस्कृति अनुसार।
अब सुधर जायेंगे सुधरने वाले मेरा निवेदन है अब तू भारत से मुँह मोड़ ले।
अब थक गयी घर में रहकर अभी तक बुहान से आये अतिथि समझकर स्वागत करते करते।
ऐसा न हो मैं भी तेरे कक्रूर हँसी से तुझे सबक सिखलाऊं तेरा सम्मान भूलकर।
इसलिए अब भारत के खातिरदारी का दुरुपयोग कर संस्कारों का परीक्षा न ले।
दो चार दिन ही अतिथि देवो भवः अच्छा लगता है।
नहीं जाओगे तो अभी नौरात्रि में दुर्गा रुप का सत्कार देखा है। अब चंडी रुप का संघारे भी देखेगा।
रजनी अजीत सिंह २३,४,२०,२०