जिदंगी में मेरी पहचान और विश्वास।

न सुख न दुख लिखा मैंने लिखा अपनी व्यथा,अब तक सबके सम्मान के खातिर,अपने एहसास सब से छुपाये।
ये मेरे किस्मत का खेल रहा है,

शब्दों का पन्नों पर उतर जाना, अक्सर मेरे सपनों का मेल रहा है।
मैं हमेशा सोचती रही सबको खुश देखने के खातिर।
मेरी बाणीं तो शब्दों से मधु घोल रहीथी,सबको अपनाने के खातिर।
जो भी मेरा साथ निभाये ओ रिश्ते मेरे लिए अनमोल रहे हैं।
जो न निभाये उसको भी नमन करती रही,
सबको सम्मान देने के खातिर।
जाने कितनी खुशियाँ गवांई अपने कुटुम्ब में शांति लाने के खातिर।
अपने माता – पिता का कैसे विश्वास तोड़,भाग्य भरोसे कैसे अपने आपको छोड़ू।
सबके दर्द भरे बचन से घायल हुआ हमेशा ये मन।
अपने आपको तड़पाया घर घर में स्वर्ग लाने के खातिर।
मै हमेशा मन को बहलाती आई तुम सबके प्यार के खातिर।
देखो न खुशियों में सरीक तो हुआ न गया,
बस आरोप ही लगाया गया मुझपर हमेशा की तरह मुझे तड़पाने के खातिर।
मेरी पहचान मिटाना चाहा अपने दिल को तसल्ली देने के खातिर।
इधर मैं छूना चाह रही थी आकाश की ऊंचाईयों को अपने प्रिय प्यार के खातिर।
उधर पराये से बने अपने श्राप दे रहे थे मुझे गर्त में गिराने के खातिर।
पर मन ये सोचता है क्या प्रह्लाद को होलिका जला पाई थी, उसके विश्वास को क्या डिगा पाई थी। क्या नरसिंह अवतार न हुआ था प्रह्लाद के विश्वास के खातिर। क्या आज भी भक्तों के खातिर हिरण्यकशिपु का संघार न होगा। क्या आज भी देवी माँ को माँ मानने वाली का हार ही होगा। मुझे विश्वास है जीत हासिल होगी पर उपकार के खातिर।

रजनी अजीत सिंह 15.11.2018

4 विचार “जिदंगी में मेरी पहचान और विश्वास।&rdquo पर;

  1. जहाँ विश्वास है वही माँ है।खूबसूरत रचना।👌👌
    जब भी होंगे प्रह्लाद यहाँ
    तब प्रभु यहाँ आ जाएंगे,
    जब चीख गगन में गूंजेगी तब,
    माँ काली बन आएगी।
    है दौर अभी इठलाने का,
    इस कलियुग को इठलाने दो,
    है पाप का घट खाली अब भी,
    इस घड़े को तुम भर जाने दो,
    गुजरा सतयुग,त्रेता,द्वापर तो
    कलियुग भी मिट जाएगा,
    आशा दिल मे विश्वास प्रबल,
    हाँ हाँ सतयुग फिर आएगा।

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