महीना: अगस्त 2018

जिंदगी में “क्या लिखा है भाग्य में मेरे”।

क्या लिखा है मेरे भाग्य में।
मैंने रिश्तों को सींचा था मधु जल से
उसने मुझे सींचा खारे जल से
नहीं उपजता प्यार हमेशा
नफरत से जीवन की क्यारी में।
क्या लिखा है मेरे भाग्य में।
नैनो के जल से सींच- सींच
प्रेम फूल को मैं बोती हूँ
“रजनी ” को कितना पड़ता ब्याज चुकाना
सबको खुश रखने की कोशिश में।
क्या लिखा है मेरे भाग्य में।
सच बोलूँ तो कुछ रिश्ते छूट जाते हैं
देखूं जो मौन होकर सब रिश्ते स्वयं ही टूट जाते हैं
मधुर रिश्ते भी मधुवन रुपी अपने कुटुम्ब में।
क्या लिखा है मेरे भाग्य में।
जो आज नहीं मेरा वो कल क्या होगा
सोच रही अपने मन में।
अब तक जीवन बीत रहा, सबको खुश रखने की तैयारी में।
क्या लिखा हैम मेरे भाग्य में।
रजनी अजित सिंह 16.8.18
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जिंदगी में “मन की जलती ज्वाला है”।

ये तन का श्रृंगार नहीं,ये जलती मन की ज्वाला है।
ये नहीं पवन का मधुर ब्यार, ये मन में उठा करूण पुकार है।
विविध रूप में हुआ सकार है, ये खुशियों का संसार नहीं।
ये मेरी विवशता है जो जलती मन की ज्वाला है, ये तन का श्रृंगार नहीं।
ये फूलों सा खिलता उद्गार नहीं, ये मेरी विवशता है।
जो जलती मन की ज्वाला है, ये तन का श्रृंगार नहीं।
फूल मेरा मधुवन का बना नहीं गले का हार।
कैसे कोयल सा मीठा गाती जब उर में दहक रहा हो अंगार।
ये मेरी विवशता है, जो जलती मन की ज्वाला है ये तन का श्रृंगार नहीं।
शब्द जो निकले मेरे मन से, ये लेखन है कोई व्यापार नहीं।
ये उठा ह्दय का करूण पुकार है, राग वीणा का झंकार नहीं।
ये मेरी विवशता है, जो जलती मन की ज्वाला है ये तन का श्रृंगार नहीं।
भावनाओं का मधुर ब्यार जो, सांसो में निर्मित होता है।
ये गीत लेखिका के उर का, लोगो का दिया उपहार नहीं।
ये मेरी विवशता है, जो जलती मन की ज्वाला है, ये तन का श्रृंगार नहीं।
रजनी अजित सिंह 15.8.18
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जिंदगी में “2018का पन्द्रह अगस्त “

देख तिरंगा अपना सर गर्व से ऊँचा हो जाता है।
जन-गण-मन की धुन सुनकर सब सम्मान में उठ खड़ा हो जाता है।
शूर-वीरों ने अपना प्राण दिया उनके सम्मान में सर अपने आप झुक जाता है।
समझा सबकुछ देश को ही अजादी चाहने वालों ने अपनी जान और स्वार्थ की परवाह नहीं की थी।
पर आज देश की हालत देख मन मेरा रोता है।
आज देश के कितने लोगों को बस अपना स्वार्थ ही भाता है।
कोई छप्पन भोग करे तो कोई रोटी को तरस जाता है।
जाति-धर्म को लेकरके बस अपने स्वार्थ के लिए नारा लग जाता है।
नहीं याद उनको की अजादी दिलाने वाले शूर-वीर हर धर्म के सपूतों ने अपना जान गंवाया था।
कम से कम उनके सम्मान में जाति-धर्म को लेकर देश के टुकड़े ना करते।
जाति धर्म से पहले सब अपने देश को ऊपर ही रखते।
उसी को देश का नायक चुनते जो देश की उन्नति कर उसको शिखर पर ले जाते।
रजनी अजित सिंह 14.8.18
15अगस्त के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं।
🇮🇳🇮🇳जय हिंद, जय भारत। 🇮🇳🇮🇳
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जिंदगी में “मैं अपना मन बहलाती हूँ”

सोच रही मैं बैठ अकेली, कितना जीवन में सुख – दुःख झेली।
खुशियों के बीते पल से मैं उर के छाले सहलाती हूँ।
मैं अपना मन बहलाती हूँ!
नहीं खोजती मीठे बोल के मरहम,धीरज धर धर मैं बन गई कुछ निर्मम।
अपने उर के घावों को नैनो के जल से नहलाती हूँ।
मैं अपना मन बहलाती हूँ!
सह – सह कर जब आहत होती, तब मन से आह निकल जाती है।
मानुष का वो निर्मम छाती, तब क्यों नहीं फट जाती है।
मैं अपना मन बहलाती हूँ!
थक हार माँ के चरणों में, कुछ आस लगा गिर जाती हूँ।
अपने मन के दुर्बलता को फिर से सबल बनाती हूँ।
मैं अपना मन बहलाती हूँ!
रजनी अजित सिंह 14.8.18
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जिंदगी में “मैं बात नहीं भूल पाई थी”

मैंअपने बीते दिनों की बात नहीं भूल पाई थी!
सुख-दुःख जीवन में सब खोकर,तेरे से नाता जुड़ा प्यारा था।
तेरे से सब बात ब्यां कर, कुछ हंसकर कुछ छिपकर, यादों में मैं खोई थी।
मैं अपने बीते दिनों की बात नहीं भूल पाई थी।
प्यार भरे उपवन में ढूंढा, बात किया मन को समझाया।
ऐसे रिश्तों का हश्र देख मन बहुत घबराया था।
मैं अपने बीते दिनों की बात नहीं भूल पाई थी।
अपने मन का बोझ स्वयं ही आँखों पर मैंने ही तो ढ़ोया था।
आँखों से मोती बरसाकर, मेरी आँखों ने तेरे उर पर।
अपने सपनों के मधुवन का, मधुमय बीज जो बोया था।
सपनो के पूरा होने से पहले कुछ खोया कुछ पाया था।
मैं अपने बीते दिनों की बात नहीं भूल पाई थी।
रजनी अजित सिंह 13.8.18
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जिंदगी में “त्राहि त्राहि करता मेरा मन”

त्राहि – त्राहि करता मेरा मन!
जब रात को सूने मन में,
तन-मन के इस बीच भंवर में,
एकाकीपन सताता है।
तब ये मेरे शब्द कलम से,
लिखकर मन बहलाता है।
त्राहि त्राहि करता मेरा मन!
जब तेरी पीड़ा से रोकर,
फिर कुछ सोच समझ चुप होकर,
तेरी यादों के बीच भंवर में,
अपने ही हाथों से अपने आँसू पोछ हटाती हूँ।
त्राहि त्राहि करता मेरा मन!
राहें चलते चलते थककर,
बैठ जाती फिर थक हार के तन -मन से,
अपना पांव दबाती हूँ।
कुछ सपनों को पाने खातिर,
फिर हौसला अपना रखकर,
आगे मैं बढ़ जाती हूँ।
त्राहि – त्राहि करता मेरा मन!
रजनी अजित सिंह 14.8.18
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जिंदगी में “साथी सांस लगी अब थकने”

साथी सांस लगी अब थकने!
उड़ रही थी स्वच्छंद गगन में,माँ की ममता के आंचल में।
सूर्य सा मैं चमक रही थी, आँख खुली गीरी धरती पर,न तुम थे न माँ का आंचल।
साथी सांस लगी अब थकने!
खेल रही थी अपनों के बीच,प्यार से झूल रही थी झूला।
खुश होकर अपने सपनों में, मन्द – मन्द कुछ गाती थी।
अपने से तुम्हें दूर पाकर विचलित मैं हो जाती थी।
कठिन डगर पर चलता देखकर,तुझे मंजिल मिलता पाती थी।
साथी सांस लगी अब थकने!
रिश्ता जिसने तुम से जोड़ा,फूलों सा जिसने महकाया।
छोड़ पथ पर तुम्हें अकेले,चली गई मैं सोने।
नींद क्या आती तुम्हें खोकर,खो गया ही मेरा जीवन सोकर।
साथी सांस लगी अब थकने!
रजनी अजित सिंह 13.8.18
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जिंदगी में “स्वप्न देखा था भंयकर”

स्वप्न देखा था भयंकर!
रात के मन में छाया अंधेरा,
मन में बसा घनघोर घटा का डेरा,
चंद्र तारो से बिहीन मन अम्बर।
स्वप्न देखा था भयंकर!
उठ रहा मन में लहरों का बवंडर,
ढूंढ रही थी मैं किनारा,
कुछ पल तो मन शांत हुआ था,
देख खड़ा उसे नदी किनारे,
जी चाहा उसे भेंट लूं अपने ह्दय में भरकर।
स्वप्न देखा था भंयकर!
लहरों बीच मैं खेल रही थी,
सिर कफन का ओढ़कर चादर,
एक मुर्दा भी बह साथ रहा था,
मानो गा गा के गीत भंयकर।
स्वप्न देखा था भंयकर!
रजनी अजित सिंह 13.8.18
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जिंदगी में “हर पल हमने तुमसे प्यार किया”

हर पल हमने तुमसे प्यार किया!
अर्द्ध रात्रि में नींद से उठकर,
तन – मन में बस प्यार ही भरकर,
मैंने तो तेरे चरणों में तन-मन सब कुछ वार दिया!
हर पल हमने तुमसे प्यार किया!
यह अधिकार जमाया हमने और न कुछ कहने पायी।
तेरे अधरो पर अधरो का हमने था रख भार दिया!
हर पल हमने तुमसे प्यार किया!
मिलन का क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज उठा परिहास जो मन में,
बसा खुशी का पल जो उर में,
तुमने जीवन भर का विश्वास दिया।
हर पल हमने तुमसे प्यार किया!
रजनी अजित सिंह 12.8.18
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जिंदगी में “मन में उठे द्वन्द का तुफान समझ पाओगे” ।

गीली आँखें पीला चेहरा,
सूखे पत्ते सा ह्दय और तन-मन।
लेकर चलता प्यार का धन,
मन में उठे द्वन्द्व का तुफान समझ पाओगे।
प्यार भरा यादों का हल-चल,
लहराता था मन मधुवन सा!
सहसा सबकुछ छूट गया,
मेरे देखे सपनों का क्या सार समझ पाओगे।
मन में उठे द्वन्द का तुफान समझ पाओगे।
टूटा मन बढ़ गई व्यथाएं,
भूल गये कुसुम प्यार की कलिकाएं।
भटकता मन अज्ञात दिशा को, पंछी बन उड़ जाओगे।
मन में उठे द्वन्द का तुफान समझ पाओगे।
रजनी अजित सिंह 12.8.18
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