अनोखा, अनजाना , बेगाना।
फिर भी अपना सा लगता “भाई”।
कभी भाई कभी बेटा कभी दोस्त की
झलक पायी थी, रिस्ता तो कुछ भी नहीं।
फिर भी अपना सा लगता” भाई “।
मैंने कुछ कहा, उसने क्या समझा?
पता तो नहीं, मुझे तो बस इतना पता
जिसमें अपना भाई, बेटा, और दोस्त दिखा हमें
उसे अपनी कविताओं का पन्ना भी शेयर किया हमने।
अब मिले न मिले, बात भले ही न हो।
फिर भी अपना सा लगता “भाई”।
कोशिश तो की थी, इस अनोखे रिश्ते को निभाने को।
पर उसका परायापन, या उसे जानने की मेरी भावुकता ही दीवार बनी रिस्ता निभाने में
अब लगता है एकलब्य द्रोणाचार्य सा रिस्ता अपना।
बहुत कुछ सीखा, जाना, अब दूर तो है हमसे।
फिर भी अपना सा लगता “भाई”।
अजित रजनी सिंह
अनोखा, अनजाना , बेगाना।
फिर भी अपना सा लगता “भाई”।
कभी भाई कभी बेटा कभी दोस्त की
झलक पायी थी, रिस्ता तो कुछ भी नहीं।
फिर भी अपना सा लगता” भाई “।
बहुत ही खूबसूरत रचना।
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धन्यवाद मधुसूदन जी जो आपने पढ़ा और सराहा।
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swagat apka….
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Very nice mam.
Heart touching….
Keep smiling always.
Keep Blogging
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Thanks Vishal ji jo aapne padha aor प्रोत्साहन diya.
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My pleasure mam.
Wish you a blessed and beautiful life ahead
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अनोखा, अनजाना , बेगाना।
फिर भी अपना सा लगता “भाई”।
बहुत शानदार , बहतरीन 👍 सुन्दर रचना के लिए बधाई 💐
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धन्यवाद आपका अजय बजरंगी जी।
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🙏🙏🙏🙏🙏
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